16 March, 2011

----शस्त्र ओर शास्त्र का बोध-----‘‘समय समस के रंग’’


सन 2003 से 2010 की काव्य साधना के दशक-दौर में कवि सोहन रांका ‘सहज’ का साहित्य साहसी है,बड़बोला नहीं । इसके हर शब्द में जो सहज स्वर है इसमें ‘राम-आवाम’ की मर्यादा है ओर आस्था की ‘शक्ति- पूजा’ । पढो पाठक महोदय - तुलसी को, गुप्त को, निराला को और तुम्हारे बीच बसे समाजसेवी - सचेत नागरिक मतदाता, स्वाध्यायी - व्यवसायी का प्रतिक्रमण-तप परखो- रंगमहल की पुरा स्थली के ‘समय समय के रंग’ में रंगो अपना मानस ।

       यह कृति 43 रचनाओं की- 108 आचार्य महाप्रज्ञ की वाक प्रज्ञा के काव्यांतरण की है । ‘अवसर के उदगार’ पित्र तुल्य भ्राताश्री को- ‘समय समय के रंग’- अपनी मातुश्री-भाभी को समर्पित कर कवि समग्र समर्पण भाव से समवाय स्वरूप सहेजता दिखता है अपने ‘सहज’ स्वभाव में- काव्य प्रवाह में ।

       अकाल से जूझते राजस्थान का यह सीमान्ती कवि ‘अकाल’ को देखता है । बीज का बीजक खोलता है । प्रकृति की त्यागमयी लीला निहारता- पर्यावरण के बोल बोलता है । अहिंसा की तहें तपासता है । घर की बात करता है । हिन्दुत्व की कसौटी हाथ में लेता है । कवि सोहन उदारवादी जैन होकर सुधारवादी भारतीय है- राजस्थानी ठेठ ठाठ का । जिन्दगी टटोलता है । मौन दिवस मनाने का संकल्प जगाता है इच्छाशक्ति के साथ । ऋषभदेव, महावीर तथा जयाचार्य प्रभति भगवंतो को सुमरता है । आंतकवादियों के शरणदाता अमेरिका व पाकिस्तान का नग्न सत्य प्रगटाता है । बाड़मेर की बाढ़याद करता - पानी को वकारता है । ‘संसद में नजारा नोटों का’ रचना के धरातल पर लोकतन्त्र के मुखौटाधारी सांसदों के भ्रष्टाचरण के पोत चौडे़ करता है । कवि सोहन धरती के प्रति कृतज्ञता दर्शाता है । ‘खुरचण’- राजस्थानी कविता में मातृभाषा की संवेदना को चेताता है । ‘चन्दा मामा’ बाल रचना में कवि का बाल मन चांद जैसी बहु की लोक कामना बतलाता है । चन्दा मामा के बाल भाणजों के मन में गुदगुदी जगाता है ।.......मन न करेगा किसी संवेदनशील पाठक का कि इतनी सहज काव्य रचनाओं वाली कृति को पढने का । 

         मैं कहूं मेरी काव्य समझ के साथ कि इस कृति की प्रतिनिधी रचना है -‘शस्त्र ओर शास्त्र’ जैसी कि ‘अवसर के उदगार’ की ‘यह समाज’ रचना कवि-कविता का कृतित्व कौशल जाहिर करती है ।

         शस्त्र ओर शास्त्र - हिंसा और आगम सम्मत अहिंसा- दो छोर अलग अलग पर कवि ठहरा समन्वयवादी- कहता है- इस जगत की दो गहन समस्या ! शस्त्र और शास्त्र हमारे !-- कितना सामंजस्य है दोनो में ! आओ मिलकर इसे विचारें ! ......सावधान आगे विकट मोड़है ......निसंदेह मन,गहरे सोच में डूबता है । कवि का यह सामंजस्यवाद है क्या तो पाठकी मानस रचना के स्वर भणता आगे बढता है कि ‘‘दोनो ‘शस्त्र और शास्त्र’ का निर्माण व विकास हुआ- अनुशासन और रक्षा के नाम पर ’’-- और पाठक-मन समझता है ‘महावीरत्व’ का संदेश। पर कवि तो संवेदना का मूल भाव का चिन्तक - गहरे में गोते लगाता है,अपनी रचना ‘शस्त्र और शास्त्र’ को खंगालता- साफ कहना और सहज रहना काव्य का बृहम वाक्य सिद्ध करता कहता है सच सच कि---‘‘इन शस्त्र-शास्त्र के बलबूते/ बंट गया हमारा यह समाज’’।‘यह समाज’  --कवि ‘सहज’ की केन्द्रीय सोच-स्थली। प्रत्यक्ष है कि समाज टुकर टुकर देख रहा है--सशास्त्र ‘नक्सली आंतकी को, आम श्रावक-जनता से शास्त्र मूल दुराता मजे मार रहा है आडम्बरी शास्त्रज्ञ मठाधीश । कर्म हिंसा शस्त्र की - भाव हिंसा शास्त्र की । यह समाज विभाजन- राष्ट्र विभाजन से भी भयानक है । कहता कहता यही बात विदा होगया  भारत का विश्वचेता आचार्य महाप्रज्ञ । कवि ‘सहज’ ने,महाप्रज्ञ वाचित एक सौ दस छन्दों में बीस छंद अपनी कवि मनसा के रचकर जो काव्यभावान्तरण किया है - यह अनूठी काव्य प्रज्ञा विकासमान होगी आगे भी- विश्वहितायी विषयों पर- यह भरोसा उसकी क्षमता-आस्था व अहिंसाचारिता का है । 

            ‘महाप्रज्ञ’ ठीक कह गए --‘‘अहिंसा नहीं बन्दूक की/व्रत की सहज संस्कृति है/ असंतुलन में संतुलन का अहिंसा संबोध जगाती है / अहिंसा कोई शस्त्र नहीं/ कवच है आत्म रक्षा का/ सृजन का मार्ग है अहिंसा/ विकृति मे निज संस्कृति से अवगत कराती है अहिंसा/ वर्ग को अवर्ग बनाने की अहिंसा एक प्रणाली है’’ ।......सावधान आगे विकट मोड़ है ।

            कवि ‘सहज’ काव्य साधना में सदा रहें सहज। शस्त्र व शास्त्र’ से बंटे समाज को वे ‘यह समाज’ का सत्य दर्पण दिखातें रहें । इक्कीसवीं सदी- मनुष्य व मशीन की निर्णायक टक्कर की है । कवि सोहनलाल रांका ‘सहज’ का काव्य-साधना का पथ निर्भीक-निरामय रहे । समय समझें हम कि ‘सम-य’- जो ‘सम’ है वह है समय । ‘स-मय’ जो सब में समरूप समाया है- वह है समय । उसी समय की धार के है ‘सहज’ कवि जिसमें आम आवाम का राम रमा है ।                 
                                    ------- ओंकार श्री , उदयपुर  

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